जगन्मंगल कालीकवचम् | Kali Kavach

जगन्मंगल कालीकवचम् (KALI KAVACH):

भैरव्युवाच- 
कालीपूजा श्रुता नाथ भावाश्च विविधः प्रभो।
इदानीं श्रोतुमिच्छामि कवचं पूर्वसूचितम्।।
त्वमेव शरणं नाथ त्रापि मां दुःखसंकटात्।
त्वमेव स्त्रष्टा पाता च संहर्ता च त्वमेव हि।।

जगन्मंगल कालीकवचम् (KALI KAVACH):भैरवी ने पूछा-हे नाथ! हे प्रभो! मैंने काली पूजा और उसके विविध भाव सुने । अब पूर्व में व्यक्त किया कवच सुनने की इच्छा हुई है, उसका वर्णन करके मेरी दुःख संकट से रक्षा कीजिये। आप ही सृष्टि की रचना करते हो, आप ही रक्षा करते हो और आप ही संहार करते हो। हे नाथ! तुम्हीं मेरे आश्रय हो।

भैरव उवाच- 
रहस्यं शृणु वक्ष्यामि भैरवि प्राणवल्लभे।
श्रीजगन्मंगलं नाम कवचं मंत्रविग्रहम्।
पठित्वा धरयित्वा च त्रैलोक्यं मोहयेत् क्षणात् ।

भैरव ने कहा-हे प्राण वल्लभे! श्री जगन्मंगलनामक काली कवच (KALI KAVACH) कहता हूँ। सुनो! इसका पाठ करने अथवा इसे धारण करने से शीघ्र त्रिलोकी को भी मोहित किया जा सकता है।
Jagannmangal-kali-kavacham, kali kavach,
Jagannmangal-Kali-Kavach
नारायणोऽपि यद्धृत्वा नारी भूत्वा महेश्वरम।
योगेशं क्षोभमनयद्यद्धृत्वा च रघूद्वहः।
वरवृप्तान् जघानैव रावणादिनिशाचरान्।

नारायण ने इसको धारण करके नारी रूप से योगेश्वर शिव को मोहित किया था। श्रीराम ने इसी को धारण करके रावणादि राक्षसों का संहार किया था।

यस्य प्रसादादीशोऽहं त्रैलोक्यविजयी प्रभुः।
धनाधिपः कुबेरोऽपि सुरेशोऽभूच्छत्रीपतिः।
एवं हि सकला देवाःसर्वसिद्धीश्वराः प्रिये॥

हे प्रिये! इसके ही प्रसाद से मैं त्रैलोक्यजयी हुआ हूँ। कुबेर इसके प्रसाद से धनाधिप हुए हैं। शचीपति सुरेश्वर और सम्पूर्ण देवतागण इसी के प्रभुत्व से सर्वसिद्धिश्वर हुए हैं।

श्रीजगन्मंगलस्यास्य कवचस्य ऋषिश्शिवः।
छन्दोऽनुष्टुब्देवता च कालिका दक्षिणेरिता॥
 जगतां. मोहने दुष्टानिग्रहे भक्तिमुक्तिषु ।
योषिदाकर्षणे चैव विनियोगः प्रकीर्तितः ॥

जगन्मंगल कालीकवचम् | Kali Kavach के ऋषि शिव, छन्द अनुष्टुप्, देवता दक्षिण कालिका और मोहन, दुष्ट निग्रह, भुक्तिमुक्ति और योषिदाकर्षण के लिए विनियोग है।

शिरो मे कालिका पातु क्रींकारैकाक्षरी परा।
क्रीं क्रीं क्रीं मे ललाटञ्च कालिकाखंगधारिणी।।
हुं हुं पातु नेत्रयुग्मं ह्रीं ह्रीं पातु श्रुती मम।
दक्षिणा कालिका पातु घ्राणयुग्मं महेश्वरी।।
क्रीं क्रीं क्रीं रसनां पातु ह्रीं ह्रीं स्वाहा स्वरूपिणी।
वदनं सकलं पातु ह्रीं ह्रीं स्वाहा स्वरूपिणी।।

कालिका और क्रींकारा मेरे मस्तक की, क्रीं क्रीं क्रीं और खंगधारिणी कालिका मेरे ललाट की, हुं हुं दोनों नेत्रों की ह्रीं ह्रीं कर्म की, दक्षिण कालिका दोनों नासिकाओं की, क्रीं क्रीं क्रीं मेरी जीभ की, हुं हुं कपोलों की और ह्रीं ह्रीं  स्वाहा स्वरूपिणी महाकाली मेरी सम्पूर्ण देह की रक्षा करें।

द्वाविंशत्यक्षरी स्कन्धौ महाविद्या सुखप्रदा।
खंगमुण्डधरा काली सर्वांगमभितोऽवतु॥
क्रीं हुं ह्रीं त्र्यक्षरी पातु चामुण्डा हृदयं मम।
हे हुं ओं ऐं स्तनद्वन्द्वं ह्रीं फट् स्वाहा ककुत्स्थलम्॥
अष्टाक्षरी महाविद्या भुजौ पातु सकर्तृका।
क्रीं क्रीं हुं हुं ह्रीं ह्रींकरौ पातु षडक्षरी मम॥

बाईस अक्षर की गुह्य विद्या रूप सुखदायिनी महाविद्या मेरे दोनों स्कन्धों की, खंगमुण्डधारिणी काली मेरे सर्वांग की, क्रीं हुं ह्रीं चामुण्डा मेरे हृदय की, ऐं हुं ओं ऐं मेरे दोनों स्तनों की, ह्रीं स्वाहा मेरे कन्धों की एवं अष्टाक्षरी महाविद्या मेरी दोनों भुजाओं की और क्रीं इत्यादि षडक्षरी विद्या मेरे दोनों हाथों की रक्षा करें।

क्रीं नाभिं मध्यदेशञ्च दक्षिणा कालिकाऽवतु।
क्रीं स्वाहा पातु पृष्ठन्तु कालिका सा दशाक्षरी॥
ह्रीं क्रीं दक्षिणे कालिके हूं ह्रीं पातु कटीद्वयम्।
काली दशाक्षरी विद्या स्वाहा पातूरुयुग्मकम्।।
ॐ ह्रीं क्रीं मे स्वाहा पातु कालिका जानुनी मम।

कालीहनामविद्येयं चतुर्वर्गफलप्रदा।।

क्रीं मेरी नाभि की, दक्षिण कालिका मेरे मध्य, क्रीं स्वाहा और दशाक्षरी विद्या मेरी पीठ की, ह्रीं  क्रीं दक्षिणे कालिके हूं ह्रीं मेरी कटि की, दशाक्षरीविद्या मेरे ऊरुओं की और ओ३म् ह्रीं क्रीं स्वाहा मेरी जानु की रक्षा करें। यह विद्या चतुर्वर्गफलदायिनी है।

क्रीं ह्रीं ह्रीं पातु गुल्फ दक्षिणे कालिकेऽवतु।

क्री हूँ ह्रीं स्वाहा पदं पातु चतुर्दशाक्षरी मम॥

क्रीं ह्रीं ह्रीं मेरे गुल्फ की, क्रीं हूँ ह्रीं स्वाहा और चतुर्दशाक्षरीविद्या मेरे शरीर की रक्षा करें।

खंगमुण्ड धरा काली वरदा भयवारिणी।
विद्याभिःसकलाभिः सा सर्वांगमभितोऽवतु॥

खंग मुण्डधरा वरदा भवहारिणी काली सब विद्याओं के सहित मेरे सर्वांग की रक्षा करें।

काली कपालिनी कुल्वा करुकुल्ला विरोधिनी।
विप्रचित्ता तथोग्रोग्रप्रभा दीप्ता घनत्विषः॥

नीला घना बालिका च माता मुद्रामिता च माम्
एताः सर्वाः, खंगधरा मण्डमालाविभूषिताः॥

रक्षन्तु मां दिक्षु देवी ब्राह्मी नारायणी तथा।
माहेश्वरी च चामुण्डा कौमारी चापराजिता।।

वाराही नारसिंही च सर्वाश्चामितभूषणाः ।
रक्षन्तु स्वायुधैर्दिक्षु मां विदिक्षु यथा तथा॥

ब्राह्मी, नारायणी, माहेश्वरी, चामुण्डा, कुमारी, अपराजिता, नृसिंही देवियों ने सर्व आभूषण धारण किए हुये हैं । यह सब माताएँ मेरे दिक् विदिक् की सर्वदा सर्वत्र रक्षा करें। (आप पढ़ रहें हैं – (जगन्मंगल कालीकवचम् -KALI KAVACH)

इत्येवं कथितं दिव्यं कवचं परमाद्भुतम्।
श्रीजगन्मंगलं नाम महामंत्रौघविग्रहम॥
त्रैलोक्याकर्षणं ब्रह्मकवचं मन्मुखोदितम्।
गुरुपूजां विधायाथ गृहीयात कवचं ततः।
कवचं त्रिःसकृद्वापि यावज्जीवञ्च वा पुनः॥

यह ’जगन्मंगलनामक’ महामन्त्रस्वरूपी परम अद्भुत दिव्य कवच कहा गया है। इसके द्वारा त्रिभुवन आकर्षित होता है। गुरु की पूजा करने के पश्चात् इस कवच को ग्रहण करना चाहिये। इसका एक बार या तीन बार अथवा जीवनपर्यन्त पाठ करें।

एतच्छतार्द्धमावृत्य त्रैलोक्यविजयो भवेत्।
त्रैलोक्यं क्षोभयत्येव कवचस्य प्रसादतः।
महाकविर्भवेन्मासात्सर्वसिद्धीश्वरो भवेत॥

इसकी पचास आवृत्ति करने से साधक त्रैलोक्य विजयी हो सकता है। इस कवच के प्रसाद से त्रिभुवन क्षोभित होता है। इस कवच के प्रसाद से एक मास में सर्वसिद्धीश्वर हुआ जा सकता है।

पुष्पाञ्जलीन् कालिकायैमूलेनैव पठेत् सकृत्।
शतवर्षसहस्त्राणां पूजायाः फलमाप्नुयात्॥

मूल मन्त्र द्वारा कालिका को पुष्पाञ्जलि देकर इस कवच का एक पाठ करने से शतसहस्रवार्षिकी पूजा का फल प्राप्त हो जाता है।

भूर्ज्जै विलिखित्तञ्चैव स्वर्णस्थं धारयेद्यदि।
शिखायां दक्षिणे बाहौ कण्ठे वा धारयेद्यदि॥
त्रैलोक्यं मोहयेत् क्रोधात् त्रैलोक्यं चूर्णयेत्क्षणात्।
बह्वपत्या जीवत्सा भवत्येव न संशयः॥

भोजपत्र अथवा स्वर्णपत्र पर यह कवच लिखकर सिर व दक्षिण हस्त या कण्ठ में धारण करने से धारक त्रिभुवन को मोहित या क्रोधित होने पर चूर्णकृत करने में समर्थ हो जाता है। नारी जाति बहुत सन्तान देने वाली और जीव वत्सा होती है। इसमें संदेह नहीं करना चाहिए।

न देयं परशिष्येभ्यो ह्यभक्तेभ्यो विशेषतः।
शिष्येभ्यो भक्तियुक्तेभ्यम्चान्यथा मृत्युमाप्नुयात॥
स्पर्धामुद्धूय कमला वाग्देवी मंदिरे-मुखे।
पात्रान्तस्थैर्यमास्थाय निवसत्येव निश्चितम॥

अभक्त अथवा परशिष्य को यह कवच प्रदान न करें। केवल भक्ति युक्त अपने शिष्य को ही दें। इसके अन्यथा करने से मृत्यु के मुख में गिरना होता है। इस कवच के प्रसाद से लक्ष्मी निश्चल होकर साधक के घर में और सरस्वती उसके मुख में वास करती हैं।

आप पढ़ रहें हैं -(जगन्मंगल कालीकवचम् -KALI KAVACH)

इदं कवचमज्ञात्वा यो जपेत्कालिदक्षिणाम्।
शतलक्षं प्रजप्यापि तस्य विद्या न सिध्यति।
स शस्त्रघातमाप्नोति सोऽचिरान्मृत्युमाप्नुयात्॥

जगन्मंगल कालीकवचम् | Kali Kavach को न जानकर जो पुरुष काली मन्त्र का जाप करता है, वह सौ लाख जपने पर भी उसकी सिद्धि को प्राप्त नहीं कर पाता है और वह पुरुष शीघ्र ही शस्त्राघात से प्राण त्याग करता है।

::इति श्री जगन्मंगल काली कवच (KALI KAVACH) सम्पूर्णम्::

यह भी पढ़ें- 

67 thoughts on “जगन्मंगल कालीकवचम् | Kali Kavach”

  1. Pingback: षोडशी - ललिता (SHODASHI LALITA) » तांत्रिक रहस्य

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

x
Scroll to Top