गुरु दीक्षा | GURU DIKSHA

गुरु दीक्षा (GURU DIKSHA) की आवश्यता को समझने से पहले हमें गुरु के महत्ता को समझना व स्वीकार करना पड़ेगा। जिस प्रकार चांदनी रात के पीछे चन्द्रमा का शीतल प्रकाश होता है, ठीक उसी प्रकार शिष्य के सफल आध्यात्मिक जीवन के पीछे गुरु कृपा एवं गुरु द्वारा प्रदान की गई दीक्षा की दिव्य शक्ति होती है।

आध्यात्म के क्षेत्र में प्रवेश करने का श्री गणेश, गुरु वरण से ही प्रारंभ होता है। इस द्वार को खोले बिना आत्मिक प्रगति के क्षेत्र में प्रवेश करना बहुत मुश्किल है, ऐसा शास्त्रकारों का मत है। कारण स्पष्ट है, विद्यार्थी कितना भी मेधावी या सुसम्पन्न क्यों न हो, अध्यापक के बिना अपने बल-बूते विद्या अध्ययन नहीं कर सकता।

शिल्प, कला, व्यवसाय जैसे प्रसंगों में भी प्रत्यक्ष प्रशिक्षण की आवश्यकता पड़ती है। इंजीनियर, डाक्टर आदि बनने के लिए के लिए भी हमें किसी अन्य की हीं सहायता लेनी पड़ती है। मोटर अपने पैसे से खरीदने वाले भी ड्राइवरी किसी अन्य से सीखते हैं। गुरु दीक्षा (GURU DIKSHA)
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GURU DIKSHA
आध्यात्म विज्ञान के रहस्यों को समझने एवं अपने ज्ञान चक्षु को खोलने के लिए भी हमें गुरु की आवश्यता होती है। बिना गुरु के आध्यात्म के क्षेत्र में एक कदम भी सफलतापूर्वक नहीं बढ़ाया जा सकता है।

आध्यात्म के क्षेत्र में स्वयं के बल-बूते आगे बढ़ने का दावा करने वालों का हाल ठीक वैसा ही होता है, जैसे कोई व्यक्ति खुद के घाव का खुद ही सर्जरी करने बैठ जाए। गुरु को हीं आध्यात्म के दुनिया में परब्रह्म कहा गया है। बिना गुरु के ज्ञान असंभव है। कहा गया है- बिना गुरु ज्ञान विरंची न होई।

अर्थात, बिना गुरु के ज्ञान हो ही नहीं सकता है। शास्त्रों ने तो गुरु को साक्षात परब्रह्म स्वरूप कहा है। यथा-

गुरु ब्रह्मा, गुरु विष्णु, गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरु साक्षात् परब्रह्म, तस्मैः श्री गुरवे नमः।।

ब्रह्मविद्या उपनिषद में कहा गया है-

गुरु जो आदेश करे, उसका पालन शिष्य को बिना विचार, संतोषयुक्त भाव से करना चाहिए। किसी भी प्रकार की विद्या को गुरु से ग्रहण करनी चाहिए। गुरु की सदा सेवा-सुश्रूषा करें, इसी से मनुष्य का सच्चा-कल्याण होता है। श्रुति में कहा गया है कि गुरु ही साक्षात हरि हैं, कोई अन्य नहीं।”

गुरु दीक्षा क्या है? | GURU DIKSHA KYA HAI

गुरु दीक्षा (GURU DIKSHA) एक दिव्य प्रक्रिया है, जिसमें गुरु अपने प्राणों से अपने शिष्य के हृदय भूमि को सिंचित करता है और उसके हृदय में ज्ञान रूपी बीज को बोता है।

यही बीज एक दिन वृक्ष बन जाता है और वही शिष्य एक गुरु बनकर हजारों लोगो को मुक्ति का राह दिखाता है। साधारण अर्थों में समझें तो समर्थ गुरु द्वारा अपने शिष्य में अपने खुद के प्राण शक्ति का संचार कर शिष्य को भी सामर्थ्यवान बना देना अर्थात इस योग्य बना देना की शिष्य का आध्यात्मिक राह सुगम व सुलभ हो जाए, दीक्षा कहलाता है।

दीक्षा के कई स्तर होते हैं, और गुरु अपने शिष्य के योग्यता को देखते हुए क्रमशः अनेक स्तरों पर विभिन्न प्रकार के दीक्षा देकर अपने शिष्य को अनुग्रहित करते हैं। इसिलिए कहा गया है कि शिष्य को अपने गुरु के आज्ञा की अवहेलना नहीं करनी चाहिए, और नहीं कभी अपमान करना चाहिए।

आपने देखा होगा कि एक ही गुरु के बहुत सारे शिष्य होते हैं परन्तु उनमें से कुछ शिष्यों का आध्यत्मिक जीवन बहुत ऊँचा होता है। कारण बस इतना है कि आध्यात्म के ऊँचाइयों को छूने वाले ये शिष्य अपने आपको गुरु के श्री चरणों में  पूर्णतः समर्पित कर देते हैं। गुरु के श्री चरणों में उनका समर्पण ही उन्हें एक दिन शव से शिव बना देता है।
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गुरु दीक्षा की आवश्यकता क्यों? | GURU DIKSHA KI AWASHYAKATA

गुरु दीक्षा (GURU DIKSHA) में दो तत्वों का समावेश है। गुरु की गरिमा और शिष्य की पात्रता। दोनों तत्व उच्चस्तरीय होने पर ही उसकी समुचित परिणती उत्पन्न होती है। इसलिए इस प्रयोग में जहॉ गुरु को अनुदान देने होते हैं, वहॉ शिष्य को भी तद्नुरूप कर्त्तव्य निभाने होते हैं।

विवेकानन्द, दयानन्द, शिवाजी, चन्द्रगुप्त आदि ने भी शिष्य के कर्त्तव्य निभाये थे। गुरु केवल मार्गदर्शन ही नहीं अपितु वह समय की दीर्घा को कम करते हैं और बहुत ही कम समय में अभीष्ट लाभ की सिद्धी में सहायक होते हैं।

इस जगत में मानव अपूर्ण रूप से आता है, और उसे पूर्णता की पूर्ति की अभिलाषा रहती है। इसकी पूर्ति के लिए गुरु ही एकमात्र सहारा होते हैं। इसलिए दीक्षा की परम आवश्यकता पड़ती है। गुरु दीक्षा (GURU DIKSHA)

गुरु दीक्षा से लाभ | GURU DIKSHA SE LABH

दीक्षा से ही शरीर की समस्त अशुद्धियां मिट जाती हैं और देह शुद्ध होने से देव-पूजा का अधिकार मिल जाता है। गुरु एक हैं, वह शिव स्वरूप हैं और उन्हीं से चारो ओर शक्ति का विस्तार हो रहा है।

यदि परम्परा की दृष्टि से देखें तो मूल पुरुष परमात्मा से ही ब्रह्मा, रुद्र आदि के क्रम से ज्ञान की परम्परा चली आयी है और एक शिष्य से दूसरे शिष्य में संक्रांत होकर वही वर्तमान गुरु में भी है।

इसी का नाम संप्रदाय है और गुरु के द्वारा इसी अविच्छिन्न सांप्रदायिक ज्ञान की प्राप्ति होती है, क्योंकि मूल शक्ति ही क्रमशः प्रकाशित होती आयी है। गुरु दीक्षा (GURU DIKSHA)

दीक्षा से हृदयस्थ सुप्त शक्ति के जागरण में बहुत हीं सहायता मिलती है और यही कारण है कि कभी-कभी तो जिनके चित्त में बड़ी भक्ति होती है, व्याकुलता और सरल विश्वास होती है, वे भी भगवत्कृपा का उतना अनुभव नहीं कर पाते, जितना कि शिष्यों को गुरु दीक्षा से होता है।

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क्या गुरु दीक्षा (GURU DIKSHA) बार -बार लेनी चाहिए?

बहुत लोग इस संशय में रहते हैं कि क्या गुरु से दीक्षा जीवन में एक बार ही लेनी चाहिए या एक ही दीक्षा बार-बार ली जा सकती है? इस प्रश्न का उत्तर है- हाँ।

गुरु दीक्षा रूपी अमृत जीतनी बार संभव हो, उतनी बार उसका पान कर लेना चाहिए। इस सम्बन्ध में एक छोटे से प्रसंग का यहाँ वर्णन करना समीचीन होगा- गुरु दीक्षा (GURU DIKSHA)

एक बार दत्तात्रेयभगवान ने कहा- एक बार गुरू दीक्षा लेने से काम नहीं चलेगा, बार-बार गुरु दीक्षा लेनी पड़ेगी। कबीर ने कहा है कि बर्तन मांजते रहिये।

बार-बार बर्तन मैला होगा और बार-बार उसे मांजना पड़ेगा, जितनी बार माजोगे, उतनी बार उसमें चमक बढ़ती रहेगी, जितनी बार शीशे को पोछोगे, उतना ज्यादा वह शीशा आपका चेहरा साफ दिखलाएगा।

जब चित्त पर लोभ, लालच, स्वार्थ, मोह, अहंकार क्रोध आदि की परत जम जाती है, धूल छा जाता है, तब गुरु दीक्षा के माध्यम से उसे पोछ लेना चाहिए।

इसलिए जब भी मौका मिले, जब भी गुरु के पास जाने का अवसर मिले, तब गुरु दीक्षा प्राप्त कर लेनी चाहिए, चाहे पहले भी गुरु दीक्षा (GURU DIKSHA) ली हुई हो फिर भी पुनः शिष्य रूपी बर्तन को एक बार पुनः मांज लेना चाहिए।

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