भुवनेश्वरी-मंत्र-स्तोत्र | Bhuvaneshwari Mantra Stotra

भुवनेश्वरी-मंत्र-स्तोत्र (Bhuvaneshwari Mantra Stotra) : जो मूल प्रकृति है, उसे ही भूवनेश्वरी, काली तथा गोपाल सुन्दरी कहते हैं। काली, चूॅकि क्रिया-शक्ति का प्रतीक बनकर आदि में शून्य रूपा होकर स्थित हैं।

अतः उनका श्री स्वरूप् अलग है और जब यह भूवनेश्वरी के रूप् में प्रतिष्ठित होती हैं तब इनका श्री स्वरूप् अलग हो जाता है।

विश्वातीत परात्पर के नाम से जानी जाने वाली काल की महाशक्ति काली का अधिकार विश्व से पहले है। अतः इन्हें आद्या तथा विश्व का संहार करने वाली कालरात्रि भी कहते हैं।

विश्वोत्पत्ति के उपक्रम में षोडशी की सत्ता कार्यरत होती है एवं समस्त भवनों का संचालन करती हुई वही मूल-महाशक्ति भूवनेश्वरी हो जाती हैं।

भुवनेश्वरी-मंत्र-स्तोत्र (Bhuvaneshwari Mantra Stotra)
Bhuvaneshwari Mantra, Bhuvaneshwari Stotra
Bhuvaneshwari-Mantra-Stotra
सृष्टि का सम्पूर्ण कार्य प्रबन्ध मूलतः तीन बातों पर ही आधारित है जिसे की सृष्टि, संचालन तथा संहार कहते हैं। यह तीनों विशेषताए एक दूसरे की पूरक हैं। इनमें से यदि एक भी क्रियाहीन हो जाए तो विश्व में अनेकों अनियमिततायें पैदा हो जायेंगी।

संहार, शून्यरूपा स्थिति है जो कि मृत्यु के बाद और जन्म से पूर्व हुआ करती है। यहॉ पर वही आदि, अन्त रहित शक्ति कार्यरत होती हैं। मूलतः यह स्वीकार करने में अतिश्योक्ति न होगी कि शून्य से सृष्टि हुआ करती है। अतः जब कुछ नहीं था अर्थात् संहार था, यहॉ से सृष्टि होती है अर्थात् जीव जन्म लेता है।

इस प्रकार जन्म के पश्चात संचालन अर्थात् जीवन यापन होता है। एक निश्चित अवधि के उपरांत पुनः संहार होता है। यही चक्र सर्वदा चलायमान है।
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भूवनेश्वरी मंत्र

भुवनेश्वरी-मंत्र (Bhuvaneshwari Mantra )

  1. ह्रीं
  2. ऐं ह्रीं
  3. ऐं ह्रीं ऐं

ऊपर कहे गए तीन मंत्रों में से किसी एक मंत्र के द्वारा साधक भगवती भुवनेश्वरी का पूजन भजन कर सकता है।

भुवनेश्वरी का ध्यान

उद्यदहर्द्युतिमिन्तुकिरीटां।
तुंगकुचां नयनत्रययुक्ताम्।। 
स्मेरमुखीं वरदांकुशपाशा।
भीतिकरां प्रभजेद् भुवनेश्वरीम्।।

देवी के देह की कान्ति उदय होते हुए सूर्य के समान है। देवी के ललाट में अर्द्धचन्द्र, मस्तक पर मुकुट, दोनों स्तन ऊॅचें, तीन नेत्र और चेहरे पर सदा हास्य तथा चारों हाथों में वर, अंकुश, पा और अभयमुद्रा विद्यमान है।

भुवनेश्वरी स्तोत्र

अथानन्दमयीं साक्षाच्छब्दब्रह्मस्वरूपिणीम्।
ईडे सकलसम्पत्त्यै जगत्कारणमम्बिकाम्।।

जो साक्षात शब्द ब्रह्म स्वरूपीणी जगत्कारणी जगन्माता हैं, मैं सब सम्पत्ति लाभ होने के निमित्त उन्हीं आनन्दमयी भुवनेश्वरी की स्तुति करता हॅू।

आद्यामशेषजननीमरबिन्दयोनेर्विष्णोः।
शिवस्य च वपुः प्रतिपादयित्रीम्।।
सृष्टिस्थितिक्षयकरीं जगतां त्रयाणां।
स्तुत्वा गिरं विमलयाम्यहमम्बिके त्वाम्।।

हे माता! तुम जगत की आद्या हो, ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने वाली जगन्माता हो, ब्रह्मा, विष्णु, शिव को उत्पन्न करने वाली तुम ही हो। तुम ही सृष्टि की कर्त्ता, स्थिति तथा लय करने वाली हो। तुम्हारी स्तुति करके मैं अपनी वाणी को पवित्र करता हॅू।

पृथ्व्या जलेन शिखिना मरुताम्बरेण।
होत्रेन्दुना दिनकरेण च मर्तिभाजः।।
देवस्य मन्मथरिपारपि शक्तिमत्ता।
हेतुस्त्वमेव खलु पर्वतराजपुत्रि।।

हे पर्वतराज की पुत्री! जो पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, यजमान, सोम और सूर्य में विराजमान हैं, जिन्होंने कामदेव को ध्वंस किया था, उन महादेव की भी त्रैलोक्य संहार शक्ति तुम्हारे ही द्वारा सम्पन्न हुई है।
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त्रिस्त्रोतसः सकललोकसमर्च्चिताया।
वैशिष्टयकारणमवैमि तदेव मातः।।
त्वत्पादपंकजपरागपवित्रितासु।
शम्भोर्जटासु नियतं परिवर्तनं यत्।।

हे मातः! तुम्हारे चरण कमलों की रेणु से पवित्र हुई शिव के सिर की जटाजूट में तीन स्रोत वाली भागीरथी सदा शोभा पाती रहती हैं। इस कारण ही उनकी सब पूजा करते हैं। इसी कारण वह सुन्दरी प्रधानता को प्राप्त हुई हैं।

आनन्दयेत्कुमुदिनीमधिपः कलानां।
नान्यामिनः कमलिनीमथ नेतरां वा।।
एकस्य मोदनविधौ परमेकमीष्टे।
त्वन्तु प्रपंचमभिनन्दयसि स्वदृष्टया।।

हे जननी! जिस प्रकार चन्द्रमा केवल कुमुदिनी को ही आनन्दित करते हैं और अन्य को नहीं। सूर्य भी एकमात्र कमल का ही आनन्द बढ़ाते हैं और किसी का नहीं। इससे जान पड़ता है कि जिस प्रकार एक-एक के आनन्द के लिए एक-एक द्रव्य ही निर्दिष्ट हुआ है, इसी प्रकार सब जगत को, एकमात्र तुम्हीं अपनी दृष्टि डालकर आनन्द देती हो।

आद्याप्यशेषजगतां नवयौवनासि। 
शैलाधिराजतनयाप्यतिकोमलासि।।
त्रय्याः प्रसूरपि तया न समीक्षितासि।
ध्येयापि गारि मनसो न पथि स्थितासि।।

हे जननी! सब जगत की आदिभूत होकर भी तुम निरन्तर नवयुवती हो। तुम पर्वतराज पुत्री होकर भी अतिकोमला हो। तुम्हीं वेद प्रकट करने वाली हो। वेद तुम्हारा तत्व निरूपण करने में असमर्थ है। हे गौरी! यद्यपि तुम ध्यानगम्य हो, किन्तु इस प्रकार होकर भी मन में स्थित नहीं होती हो।
भुवनेश्वरी-मंत्र-स्तोत्र (Bhuvaneshwari Mantra Stotra)

आसाद्य जन्म मनुजेषु चिराद्दुरापं।
तत्रापि पाटवमवाप्य निजेन्द्रियाणाम्।।
नाभ्यर्च्चयन्ति जगतां जनयित्रि ये त्वां।
निः श्रेणिकाग्रमधिरुह्य पुनः पतन्ति।।

हे जगन्मातः! जो दुर्लभ नरजन्म प्राप्त करके भी तुम्हारी पूजा नहीं करते हैं, वह मुक्ति की सीढ़ी पर चढ़कर भी पुनः गिरते हैं।
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कर्पूरचूर्णहिमवारिविलोडितेन।
ये चन्दनेन कुसुमैश्च सुजातगन्धैः।।
आराधयन्ति हि भवानि समुत्सुकास्त्वां।
ते खल्वशेषभुवनादिभुवं प्रथन्ते।।

हे भवानी! तुम मुलाधार पद्म में सोये हुए सर्पराज के समान विराजमान होकर विश्व की रचना करती हो। वहॉ से बिजली की रेखा के समूह की समान क्रमानुसार ऊर्ध्व में स्थित पंच पद्म को भेदकर सहस्र दल पद्म की कर्णिका के मध्य स्थित परम शिव के सहित संगत होती हो। यह विद्युल्लता योग से जागती है।

तन्निर्गतामृतरसैरभिषिच्च गात्रं।
मार्गेण तेन विलयं पुनरप्यवाप्ता।।
येषां हृदि स्फुरति जातु न ते भवेयु।
र्म्मातर्महेश्वरकुटुंबिनि गर्भभाजः।।

हे जननी हरगृहिणी! तुम सहस्र दल कमल से निर्गत हुए सुधारस से शरीर को अभिषिक्त करती हुई सुषुम्ना नाड़ी के मार्ग में फिर प्राप्त होकर लय हो जाती हो, तुम जिसके हृदय कमल में उदित नहीं होती, वह बार-बार गर्भ में प्रवेश अर्थात पुनः-पुनः जन्मने का दुख पाता है।

आलम्बिकुन्तलभरामभिरामवक्त्रा।
मापीवरस्तनतटीं तनुवृत्तमध्याम्।।
चिन्ताक्षसूत्रकलशालिखिताढ्यहस्तां।
मातर्नमामि मनसा तव गौरि मूर्तिम्।।

हे जननी! तुम्हारे केश लम्बे हैं। तुम्हारा मुख अत्यन्त मनोहर है। तुम ऊॅचे कठोर स्तन वाली हो। तुम्हारी कमर पतली है और तुम्हारी चार भुजाओं में, ज्ञानमुद्रा, जपमाला, कलश और पुस्तक विद्यमान है। हे गौरी! तुम्हारी ऐसी मूर्ति को नमस्कार है।

आस्थाय योगमवजित्य च वैरिषट्क।
मावध्य चेन्द्रियगणं मनसि प्रसन्ते।।
पाशांकुशाभयवराढ्यकरां सेवक्त्रा।
मालोकयन्ति भुवनेश्वरि योगिनस्त्वाम्।।

हे भुवनेश्वरी! योगिजन योग का आश्रय लेकर काम क्रोधादि शत्रुओं को जीतकर इन्द्रियों को रोककर प्रफुल्लित चित्त से पाश, अंकुश, अभय एवं वरयुक्त हाथ वाली, सुशोभनमुखी तुम्हारा दर्शन करते हैं।

उत्तप्तहाटकनिभा करिभिश्चतुर्भि।
रावर्तितामृतघटैरभिषिच्यमाना।।
हस्तद्वयेन नलिने रुचिरे बहन्ती।
पद्मापि साभकरा भवसि त्वमेव।।

हे जननी! जो तपे हुए कांच के समान वर्ण वाली हैं। चार हाथी, जल पूरित घट से जिनका अभिषेक करते हैं। जो एक तरफ के दोनों हाथों में पद्म और अन्य दोनों हाथों में अभय तथा वर मुद्रा धारण करती है वह लक्ष्मी देवि स्वरूपिणी तुम्हीं हो।

अष्टाभिरुग्रविविधायुधवाहिनीभि।
र्दोर्वल्लरीभिरधिरुह्य मृगाधिराजम्।।
दूर्व्वादलद्युतिरमर्त्य विपक्षपक्षान्।
न्यक्कुर्व्वती त्वमसि देवि भवानि दुर्गे।।

हे देवी भवानी! जो सिंह के ऊपर चढ़कर नाना रूप् वाले अस्त्र आठ हाथों से उठाती हैं। जो दूर्वादल के समान कान्ति वाली हैं। जिन्होने देवताओं के शत्रुओं को परास्त किया है। वह दुर्गास्वरूपिणी माता तुम्हीं हो।

आविर्निदाघजलशीकरशोभिवक्त्रां।
गुंजाफलेन परिकल्पितहारयष्टिम्।।
रत्नांशुकामसितकान्तिमलंकृतान्त्वा।
माद्यां पुलिन्दतरुणीमसकृत स्मरामि।।

पसीने की निकली हुई बूंदों से जिनका मुखमण्डल शोभा पाता है। जिन्होंने चौंटली के बीजों से बनी हार धारण की है। पत्रावली जिनके वसन है, उन्हीं कृष्णकान्ति वाली, कामदेव को वश में करने वाली, आद्या पुलिन्दर मणी को बारम्बार स्मरण करता हॅू।
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हंसैर्गतिक्वणितनूपुरदूरकृष्टै।
र्मूर्तैरिवाप्तवचनैरनुगम्यमानौ।।
पद्माविवार्ध्वमुखरूढ़सुजातनालौ।
श्रीकण्ठपत्नि शिरसैव दधे तवांघ्री।।

हे नीलकंठ की पत्नी! हंस जिस प्रकार नूपुर के शब्द द्वारा दूर से खिंचे आते हैं, इसी प्रकार वेद तुम्हारे चरण कमलों का अनुगमन करते हैं। किन्तु तुम्हारे चरण कमल, श्रेष्ठ नीलकमल के समान विराजमान हैं। मैं तुम्हारे दोनों चरण मस्तक पर धारण करता हूॅ।

द्वाभ्यां समीक्षितुमतृप्तिमितेन दृग्भ्या।
मुत्पाद्यता त्रिनयनं वृषकेतनेन।।
सान्द्रानुरागभवनेन निरीक्ष्यमाणे।
जंघे उभे अपि भवानि तवानतोअस्मि।।

हे भवानी! वृषभ ध्वज श्रीमहादेव जी ने दोनों नेत्रों से तुम्हारे रूप का दर्शन करके तृप्त न होने से ही मानों तीसरे नेत्र को उन्नत कर अत्यन्त गाढ़ अनुराग सहित तुम्हारी उरु का दर्शन किया है। अतएव मैं तुम्हारी उन दोनों उरुओं को नमस्कार करता हॅू।

ऊरू स्मरामि जितहस्तिकरावलेपौ।
स्थौल्येन मार्दवतया परिभूतरम्भौ।।
श्रोणी भवस्य सहनौ परिकल्प्य दत्तौ।
स्तम्भाविवांगवयसा तव मध्यमेन।।

हे जननी! तुम्हारी ऊरु हाथियों की सूंड का गर्व नष्ट करती है। स्थूलता और कोमलता से केले के वृक्ष को परास्त करती है। तुम्हारा नितम्ब देखने से बोध होता है, मानो मध्य देश ने ही स्तम्भ स्वरूप् में उसकी कल्पना करी है।
भुवनेश्वरी-मंत्र-स्तोत्र (Bhuvaneshwari Mantra Stotra)

श्रोण्यौ स्तनौ च युगपत्प्रथयिष्यतोच्चै।
र्बाल्यात्परेण वयसा परिकृष्टसारः।।
रोमावलीविलसितेन विभाव्य मूर्त्ति।।
र्मध्यन्तव स्फुरति मे हृदयस्य मध्यैं

हे देवी! तुम्हारा मध्य देश देखने में अनुमान होता है कि मानो तुम्हारे नितम्ब और स्तनमण्डल दोनों ने उच्चता विस्तार के कारण यौवन द्वारा मध्य देश का सार ग्रहण किया है। इसी कारण तुम्हारा मध्य देश अत्यन्त क्षीण हो गया है। हे जननी! तुम्हारा यह मध्य देश मेरे हृदय में स्फुरित हो।

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सख्यः स्मरस्य हरनेत्रहुताशभीरो।
र्लावण्यवारिभरितं नवयौवनेन।।
आपाद्य दत्तमिव पल्वलमप्रधृष्य।
नाभिं कदापि तव देवि न विस्मरेयम्।।

हे जननी! शिव की नेत्राग्नि से डरी हुई नवयुवती रति का लावण्य जलपूर्ण करके अल्पसरोवर के समान तुम्हारी नाभि बनाई गई है, तुम्हारी इस नाभि को मैं कभी नहीं भूलॅॅूगा।

ईशोपगूहपिशुनं भसितं दधाने।
काश्मीरकर्दममनु स्तनपंकजे ते।।
स्नानोत्थितस्य करिणः क्षणलक्षफेनौ।
सिन्दूरितौ स्मरयतः समदस्य कुम्भो।।

हे जननी! तुम्हारे दोनों उन्नत कुचों ने भस्म धारण की है, उसके द्वारा हरका आलिंगन प्रतीत होता है। और यह दोनों स्तन पद्म मूल से अनुलिप्त होने के कारण स्नान से उठे मदयुक्त हाथी के क्षण मात्र को फेन से लक्षित गण्ड स्थल का स्मरण कराते हैं।

कण्ठातिरिक्तगलदुज्ज्वलकान्तिधरा।
शोभौ भुजौ निजरिपोर्मकरध्वजेन।।
कण्ठग्रहाय रचितौ किल दीर्घपाशौ।
मातर्म्मम स्मृतिपथं न विलंघयेताम्।।

तुम्हारे दोनों हाथ देखने से अनुमान होता है, मानो कामदेव ने अपने शत्रु हर का कंठग्रहण करने के लिए दीर्घ पाश बनाया है। हे मातः तुम्हारे यह दोनों हाथ मैं कभी नहीं भूलूॅगा।
भुवनेश्वरी-मंत्र-स्तोत्र (Bhuvaneshwari Mantra Stotra)

नात्यायतं रचितकम्बुविलास चौर्य्यं।
भूषाभरेण विविधेन विराजमानम्।।
कण्ठं मनोहरगुणं गिरिराजकन्ये।
संचिन्त्य तृप्तिमुपयामि कदापि नाहम्।।

हे गिरीराजपुत्री! जो अत्यन्त दीर्घ नहीं है, ऐसे अनेक प्रकार के अलंकृत मनोहरगुण तुम्हारे कंबुकंठ की मैं भावना करता हुआ कभी तृप्त न होऊॅ।

अत्यायताक्षमभिजातललाटपट्टं।
मन्दस्मितेन दरफल्लकपोलरेखम्।।
बिम्बाधरं वदनमुन्नतदीर्घनासं।
यस्ते स्मरत्यसकृदम्ब स एव जातः।।

तुम्हारे मुख मण्डल पर बहुत चौड़े नयन विराजमान हैं। भाल परम मनोहर दिखाई देता है। मृदुहास्य द्वारा कपोल प्रफुल्लित हुए हैं। अधर बिम्बफल के समान शोभा पाते हैं। सुन्दर चेहरे पर उन्नत दीर्घ नासिका विराजमान है। जो पुरुष तुम्हारी ऐसी देह का स्मरण करते हैं, उनका ही जन्म सफल होता है।

आविस्तुषारकरलेखमनल्पगन्ध।
पुष्पोपरि भ्रमदलिव्रजनिर्व्विशेषम्।।
यश्चेतसा कलयन्ते तव केशपाशं।
तस्य स्वयं गलति देवि पुराणपाशः।।

हे देवी! तुम्हारे केश चन्द्रमा की चॉदनी से प्रकाशित होते हैं। वह स्वल्प गंधयुक्त फल के ऊपर भ्रमण करने वाले भौंरे के समान प्रतीत होते हैं। जो पुरुष तुम्हारे ऐसे केशपाश की भावना करते हैं, उनका सनातन संसारपाश कट जाता है।
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श्रुतिसुरचितपाकं धीमतां स्तोत्रमेतत्।
पठति य इह मर्त्यो नित्यमार्द्रान्तरात्मा।।
स भवति पदमुच्चैः सम्पदां पादनम्रः।
क्षितिपमुकुटलक्ष्मीलक्षणानां चिराय।।

जो पुरुष बुद्धिमानों के श्रुति, सुखदायक इस स्तोत्र को आर्द्र होकर प्रतिदिन पढते हैं, वह सम्पूर्ण सम्पदाओं के स्वामी होते हैं, और राजा लोग सदा उनके चरण कमलों में झुका करते हैं।

।। इति श्री भुवनेश्वरी स्तोत्रम् सम्पूर्णं।।

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