Das-Mahavidya-Upasana |
दश महाविद्या उपासना | DASH MAHAVIDYA UPASANA : दश महाविद्याओं की उपासना साधक अपनी श्रद्धानुसार करते हैं परन्तु साधना में कुछ विशेष करने के लिये दीक्षा ली जाती है।
दश महाविद्या उपासना | DASH MAHAVIDYA UPASANA से सम्बन्धित कोई भी दीक्षा, दो विभिन्न खण्डों में विभाजित है। इन खण्डों को कुल कहते हैं। यह दो नामों से जाने जाते हैं जिन्हें ’कालीकुल’ तथा ’श्रीकुल’ कहते हैं।
जो साधक भगवती काली, तारा तथा छिन्नमस्तिका की दीक्षा लेते हैं और उन्हें अपना आराध्य मानते हैं, उन्हें ’कालीकुल’ के साधक माना जाता है।
शेष सभी महाविद्याओं के साधक ’श्रीकुल’ के साधक माने जाते हैं।
अपने कुलानुसार दश महाविद्याओं की उपासना अपनी विभिन्नता को प्राप्त होती है। महाविद्याओं को आदि स्वरूप माना जाता है अर्थात् जब कुछ नहीं था तब यह महादेवियाँ विद्यमान थीं।
महाविद्याए आदि स्वरूप हैं। आदि का सूचक शून्य हुआ करता है। शून्य अर्थात् कुछ भी नहीं। यह शून्यरूपा शक्ति काली है। यही मूल तत्त्व है।
महानिर्गुण स्वरूप होने के कारण इनकी उपमा अन्धकार से की जाती है। यह मूल तत्त्व महासगुण स्वरूप होने के कारण सुन्दरी कहलाती है।
“सा काली द्विविधा प्रोक्ता श्यामा रक्ता प्रभेदतः।
श्यामा तु दक्षिणा प्रोक्ता रक्ता श्री सुन्दरि मता॥“
अर्थात् जो काली देवी हैं वो श्यामा तथा रक्ता के भेद से दो रूपों में मानी जाती हैं। श्याम स्वरूप वाली देवी को ’काली’ तथा रक्त स्वरूप वाली देवी को ’श्री सुन्दरी’ कहते हैं।
इसी देवी ने समूचे ब्रह्माण्ड का श्रीगणेश किया था और इसकी उत्पत्ति से पूर्व वह केवल स्वयं ही थी। इस आदि अन्त रहित सत्ता को कामकला तथा श्रृंगार कला के नाम से भी जानते हैं। यही मूल शक्ति त्रिदेवों अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव के प्रादुर्भाव का कारण है।
इन्हीं से समस्त मरुदगण, गन्धर्व, अप्सरायें, किन्नरादि की रचना हुई है। समस्त दिशाओं में दृश्य तथा अदृश्य इन्हीं के द्वारा सृजित हुआ है।
“तदेतत् सर्वाकार महात्रिपुरसुन्दरीम्।
त्व चाव च सर्व विश्व सर्वदेवताः॥
इतरत् सर्वं महात्रिपुरसुन्दरीम्।
सत्यमेकं ललिताऽऽख्यंवस्तु।
तदद्वितीयम् खण्डार्थं परब्रह्म॥“
अर्थात् इस भाँति से महात्रिपुरसुन्दरी समस्त स्थूलों में अधिष्ठित है। समूची-सृष्टि, दृश्य अदृश्य सभी कुछ स्वयं महात्रिपुरसुन्दरी ही है। जो सत्य है, जो परब्रह्म तत्त्व है वह ललिता अर्थात् महात्रिपुरसुन्दरी ही है।
जिस भाँति से जल केवल जल होता है परन्तु गंगा का जल गंगा जल, यमुना का जल यमुनाजल कहलाता है। इसी प्रकार शून्यरूपा मूल प्रकृति को भुवनेश्वरी, काली तथा सुन्दरी कहा जाता है। मूलतः यह सब एक ही हैं।
“इयं नारायणी काली तारा स्यात् शून्यवाहिनी। .
सुन्दरीम् रक्तकालीयं भैरवी नादिनी तथा।।
अर्थात् जो नारायणी है वह काली ही है। यह काली, तारा रूप से शून्य में निवास करती हैं। रक्तकाली को सुन्दरी कहते हैं और फिर यही शक्ति भैरवी नादिनी आदि स्वरूपों से जानी जाती है।
दश महाविद्या | DASH MAHAVIDYA की उपासना भोगसिद्धियों के साथ जीवन्मुक्ति के लिए भी अचूक साधन है। अतः यह आवश्यक है कि इनका पूजा विधान तथा स्थापना-विधि विशेष रूप से समझ ली जाय।
महाभागवत में नारद जी के प्रश्न करने पर महोदव जी ने देवपंचायतन के समान दशायतन महाविद्या पूजा की विधि छियत्तरवें अध्याय में बतायी है।
उन्होंने कहा कि काली अथवा कामाख्या को केन्द्र में रखकर काली के बायें भाग में तारा तथा दाहिने भाग में भुवनेश्वरी की प्रतिष्ठा करे।
अग्निकोण में षोडशी तथा र्नैऋत्य में भैरवी की स्थापना करे । वायव्य में छिन्नमस्ता तथा पीठ भाग में बगलामुखी को विराजमान करे।
ईशान कोण में त्रिपुरसुन्दरी, ऊर्ध्व भाग में मातंगी, पश्चिम में धूमावती की पूजा करे। इस महापीठ के नीचे महारुद्र तथा ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओं की उनकी शक्तियों के साथ प्रतिष्ठा करे।
दश महाविद्या उपासना | DASH MAHAVIDYA UPASANA के लिए निम्न लिखित मंत्र कल्पतरु के सामान है :-
हूं श्रीं ह्रीं वज्रवैरोचनीये हुं हुं फट् स्वाहा ऐं ।
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