तांत्रिक रहस्य | Tantrik Rahasya : तंत्र एक महाविज्ञान है। एक ऐसा विज्ञान जो पत्थर पर भी घास उगा दे, रेत में भी गंगा बहा दे, मृत को भी जीवित कर दे। भारतवर्ष के गर्भ में पले इस महाविद्या ने संसार को बहुत कुछ दिया है, परन्तु इस तंत्र विज्ञान को आज लोग भूलते जा रहे हैं।
दोस्तों! तांत्रिक रहस्य (Tantrik Rahasya) को समझना आसान नहीं है। जन्म-जन्मान्तर के पुण्य संचय के बाद बड़ी ही सौभाग्य से योग्य गुरु का, साधक के जीवन में आगमन होता है। तब जाके यदि साधक की योग्यता उच्च है, तो गुरु तांत्रिक रहस्यों एवं तंत्र विद्या के गुह्य तथ्यों को उजागर करता है।
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तंत्र विद्या (Tantra Vidya)
इस महान धरोहर के प्रति लोगों के हृदय में ऐसी नफरत फैलाई जा चुकी है कि उन्हें लगता है कि तंत्र से सिर्फ दूसरों को फॉसा जा सकता है, मारा जा सकता है। यदि इमानदारी से चिंतन करें तो इसमें लोगों का कोई दोष नहीं है। सामान्य लोग तो जो देखेगें वहीं सत्य मानेगें। कुछ तथा-कथित तंत्र विद्या के ठेकेदारों ने अपने स्वार्थपूर्ति के लिए इस घोर रहस्यमयी विद्या को बदनाम करके रख दिया है।
तंत्र विद्या (Tantra Vidya) पर लिखित ग्रंथों के अनुसार, ज्ञान के जितने स्तर हैं उनमें दो स्तर मुख्य हैं, आगम और निगम। आगम तंत्रों पर आधारित है जबकि निगम आधारित है वेदों पर। तंत्र गुह्य ज्ञान है और वेद परम ज्ञान। तंत्र वेदों के तरह सार्वजनिक नहीं है।यह गुह्य से भी गुह्यतम् है।
गुरू परम्परा से ही इसके शु़द्ध स्वरूप का दर्शन सम्भव है। तंत्र मार्ग में पूर्णरूप से केवल ग्रंथों पर अवलम्बन, निश्चित ही पतन का कारण बन सकता है, क्योकि तंत्र विद्या (Tantra Vidya)के बारे में एक बात यह भी कही जाती है कि यह दो-धारी तलवार जैसा है, इसमें थोड़ी सी चूक प्राणों को संकट में डाल सकता है। इस प्रकार से ज्ञात है की तांत्रिक रहस्य (Tantrik Rahasya) को जानना आसान नहीं है।
तंत्र एक गुह्य ज्ञान है
तांत्रिक रहस्य (Tantrik Rahasya)
तंत्र को गुह्य ज्ञान की संज्ञा देने के पीछे कारण यह भी है कि इसका पहला चरण है अनुभूति। अपने मन, भाव, अपनी इन्द्रियों की अनुभूति एवं अपने समग्र होने की अनुभूति। इसका दूसरा चरण है, दूसरे की अनुभूति एवं तीसरा चरण है अखण्ड अस्तित्व की अनुभूति।
शाक्त तंत्रों में साधक की बौद्धिक स्तर को तीन अवस्थाओं में विभाजित किया गया है- जो कि क्रमशः पाशविक, वीरतापूर्ण एवं दैवी भावनाओं पर अवलम्बित है। इन तीनों अवस्थाओं को तंत्र के शब्दों में पशु भाव, वीर भाव और दिव्य भाव कहते हैं। एक तंत्र साधक इन तीनो भावों के द्वारा कण-कण में व्याप्त उस महाशक्ति की साधना उपासना करता है।
वामकेश्वर तंत्र के अनुसार जन्म से 16 वर्ष तक पशुभाव, 50 वर्ष तक वीर भाव और आगे का समय दिव्य भाव का होता है। तंत्र के रहस्यमय दुनिया में कुछ ही साधक पशुभाव से निकल कर वीर भाव तक पहुंच पातें हैं और उनमे भी विरले ही ऐसे तांत्रिक साधक होते हैं, जो दिव्य भाव को प्राप्त होते हैं, तथा देवत्व की प्राप्ति करते हैं।
तंत्र (Tantra) में भाव के बाद आचार है। आचार अथवा साधना के बाहरी अभ्यास के अनुसार तंत्रों की एक सप्तस्तरीय स्थिति भी होती है, जो इस प्रकार है- वेदाचार, वैष्णवाचार, शैवाचार, दक्षिणाचार, वामाचार, सिद्धान्ताचार एवं कौलाचार।
प्रत्येक साधक को दिव्य भाव तक पहुचने के लिए इन सातों आचारों से गुजरना पड़ता है, जिसमे जन्म-जन्मान्तर का समय लग जाता है। यदि कोई साधक किसी जन्म में वेदाचार का पालन करता है, और वैदिक नियमों का बिना असफल हुए पालन करता है तो वह अगले जन्म में वैष्णवाचारी होगा।
इन सभी विषयों को विस्तार पूर्वक जानना-समझना तांत्रिक साधना मार्ग के पथिक के लिए आवश्यक है। इन सातों आचारों के मूल बिंदु को समझे बिना ना कोई तंत्र समझ सकता है, और नहीं तांत्रिक रहस्य (Tantrik Rahasya)।।
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