छिन्नमस्ता – CHHINNAMASTA :- एक बार आद्यभवानी अपनी सहचरियों जया तथा विजया के साथ नदी में स्नान करने के निमित्त गयीं। उस स्थल पर स्नान करते हुए देवी के हृदय में सृष्टि निर्माण की प्रबल अभिलाषा जागृत हुई।
इस इच्छा शक्ति के गरिमा के प्रभाव से देवी का रंग काला पड़ गया। वह स्वयं में मगन थीं और समय भी अत्यधिक व्यतीत हो चुका था। दोनों सहचरियों ने उनसे बताया कि उन्हें भूख लगी हुई है।
Chhinnamasta Devi
देवी ने उन्हें प्रतीक्षा करने के लिये कहा। कुछ समयोपरांत सहचरियों ने पुनः भगवती को स्मरण कराया कि वह भूखी हैं। तब देवी ने अपने खड़्ग से अपना शीश छिन्न कर दिया और देवी ने अपना कटा सिर अपने हाथ पर रख लिया।
उनके धड़ से रक्त की लहरें फूट पड़ीं। धड़ से निकलने वाली रक्त धारायें तीन भागों में विभक्त थीं जिसका पान भगवती कि दोनों सहचरियॉ, जया और विजया तथा स्वयं भगवती का मुण्ड जो उन्होंने अपने हाथ में ले रखा था, करने लगीं। (छिन्नमस्ता – CHHINNAMASTA)
भारत में चिन्तापुर्णी देवी के नाम से हिमाचल (ऊना जिला) में जो भव्य मंदिर भक्तों के आकर्षण का केंन्द्र बना हुआ है, वह भगवती छिन्नमस्ता देवी का ही है।
छिन्नमस्ता – CHHINNAMASTA देवी प्रत्यालीढपदा हैं, अर्थात् युद्ध के लिये एक चरण आगे और एक पीछे करके वीर भेष में खड़ी हैं। इन्होंने छिन्नशिर और खंग धारण किया हुआ है।
देवी नग्न हैं और अपने कटे हुए गले से निकलती हुई शोणित धारा का पान करती हैं। उनके मस्तक में सर्पाबद्ध मणि है, तीन नेत्र हैं और वक्ष स्थल पर कमलों की माला पहने सुशोभित हो रहीं हैं।
यह रति में आसक्त कामदेव के ऊपर दंडायमान हैं। इनकी देह की कान्ति जवा पुष्प की तरह रक्त वर्णा है। देवी के दाहिने भाग में श्वेत वर्ण वाली, खुले केश, कैंची और खर्पर धारिणी देवी खड़ी हैं, जिनका नाम वर्णिनी है। यह वर्णिनी, देवी के छिन्न गले से गिरती हुई रक्तधारा का पान करती है।
इनके मस्तक में नागाबद्ध मणि है। बायीं तरफ खंग खर्पर धारिणी कृष्ण वर्णा दूसरी देवी खड़ी हैं। यह भगवती के छिन्न गले से निकली हुई रुधिर धारा का पान करतीं हैं। इनका दाहिना पांव आगे और बायां पांव पीछे के भाग में स्थित है।
यह प्रलय काल के समान सम्पर्ण जगत् का भक्षण करने में समर्थ हैं। इनका नाम डाकिनी है।
उनकी नाभि में खिला हुआ कमल है। उसके मध्य में बंदूक पुष्प के समान लाल वर्ण प्रदीप्त सूर्य मण्डल है, उस रवि मण्डल के मध्य में बड़ा योनि चक्र है।
उसके मध्य में विपरीत मैथुन क्रीड़ा में आसक्त कामदेव और रति विराजमान हैं। इन कामदेव और रति की पीठ में प्रचण्ड अर्थात छिन्नमस्ता स्थित हैं। यह करोड़ों तरुण सूर्य के समान तेजशालिनी एवं मंगलमयी हैं। (छिन्नमस्ता – CHHINNAMASTA)
वामे छिन्नशिरोधरां तदितरे पाणौ महत्कर्तृकां।
प्रत्यालीढपदां दिगन्तवानामुन्मुक्तकेशव्रजाम्।।
छिन्नात्मीयशिरः समुल्लसद्सृग्धारां पिबन्तीं परां।
बालादित्यसमप्रकाशविलसन्नेत्रत्रयोद्भासिनीम्
इनके बायें हाथ में कटा हुआ मुण्ड है। दाहिने हाथ में भीषण कृपाण है। देवी एक चरण आगे और एक चरण पीछे किये वीरवेष से स्थित हैं। चारों दिशायें हीं उनका वस्त्र है। उनके केश खुले हुए हैं।
यह अपने सिर को काटकर उसकी रुधिर धारा का पान कर रहीं हैं। इनके तीनों नेत्र प्रातः कालीन सूर्य के समान प्रकाशमान हैं।
इस देवी के दक्षिण और वाम भाग में निज शक्तिरूपा दो योगिनियां विराजमान हैं। इनके दक्षिण भाग में स्थित योगिनी के हाथ में बड़ी कैंची है। यह योगिनी की उग्र मूर्ति है। यह रक्तवर्णा और रक्त केशी हैं।
यह नग्न हैं और प्रत्यालीढपद से स्थित हैं। इनके नेत्र लाल हैं और इनको छिन्नमस्ता देवी अपने गले से निकलती हुई रुधिर का पान करा रहीं हैं।
इसका मुखमण्डल दांतों से दुर्निरीक्ष हो रहा है। ऐसे मुख मण्डल के मध्य में चलायमान जीभ शोभित हो रही है। इसके तीनों नेत्र बिजली के समान चंचल हैं। इसके हृदय में सर्प विराजमान है। इसकी अत्यन्त भयानक स्वरूप है। छिन्नमस्ता देवी इस डाकिनी को अपने कंठ के रुधिर से तृप्त कर रहीं हैं।
ब्रह्मा, शिव और विष्णु आदि आत्मज्ञ योगेन्द्रगण इन छिन्नमस्ता देवी के चरण कमल को मस्तक में धारण करते हैं। वह प्रतिदिन इनके अचिन्त्य रूप का मनन करते हैं। यह संसार का सारभूत हैं।
यह तीनों लोकों को उत्पन्न करने वाली हैं। यह मनोरथों को सिद्ध करने वाली हैं। इस कारण, कलियुग के पापों को हरने वाली इन देवी जी का मैं मन में ध्यान करता हूॅ।
यह संसार की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश करने के निमित्त ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र इन तीन मूर्तियों को धारण करतीं हैं। देवता इनके खिले कमल के समान दोनों चरणों का सदा भजन करते रहते हैं। सम्पूर्ण अर्थों की सिद्धि के निमित्त मैं छिन्नमस्ता देवी का मन में ध्यान करता हूॅ।
अपि पिशित-परस्त्री योगपूजापरोऽहं।
बहुविधजडभावारम्भसम्भाविताऽहम्।।
पशुजनविरतोऽहं भैरवीसंस्थितोऽहं।
गुरुचरणपरोऽहं भैरवोऽहं शिवोऽहम्।।
मैं सदा मद्य, मांस, परस्त्री आसक्त तथा योगपरायण हूॅ। मैं जगदम्बा के चरण कमल में, संलिप्त हो बाह्य जगत में रहकर जडभावापन्न हूॅ। मैं पशुभावापन्न साधक के अंग से अलग हूॅ।
मैं सदा भैरवीगणों के मध्य में स्थित रहता हॅू। मैं गुरु के चरण कमलों का ध्यान करता रहता हॅू। मैं भैरव स्वरूप और मैं ही शिवस्वरूप हॅॅू।
इदं स्तोत्रं महापुण्यं ब्रह्मणा भाषितं पुरा।
सर्व्वसिद्धिप्रदं साक्षान्महापातकनाशनम्।।
यह महापुण्य को देने वाला स्तोत्र पहले ब्रह्मा जी ने कहा है। यह स्तोत्र सम्पूर्ण सिद्धियों का प्रदाता है। बडे-बड़े पातक और उपपातकों का यह नाश करने वाला है।
यः पठेत प्रातरुत्थाय देव्याः सन्निहितोऽपि वा।
तस्य सिद्धिर्भवेद्देवि वाच्छितार्थप्रदायिनी।।
जो मनुष्य प्रातःकाल के समय शय्या से उठकर, छिन्नमस्ता देवी के पूजा काल में इस स्तोत्र का पाठ करता है, हे देवी! उनकी मनोकामना शीघ्र पूर्ण होती है।
धन्यं धान्यं सुतां जायां हयं हस्तिनमेव च।
वसुन्धरां महाविद्यामष्टासिद्धिर्भवेद्ध्रुवम्।।
इस स्तोत्र का पाठ करने वाले मनुष्य को धन, धान्य, पुत्र, कलत्र, घोड़ा, हाथी और पृथ्वी प्राप्त होती है। वह अष्ट सिद्धि और नव निधियों को निश्चय ही प्राप्त कर लेता है।
हे मातः! तुमने व्यार्घ चर्म द्वारा अपनी जंघाओं को रंजित किया हुआ है। तुम अत्यन्त मनोहर आकृति वाली हो। तुम्हारा उदर अधिक लम्बायमान है। तुम छोटी आकृति वाली हो।
तुम्हारा देह अनिर्वचनीय त्रिवली से शोभित है। तुम मुक्ता से विभूषित हो। तुमने हाथ में कुन्दवत् श्वेत वर्ण विचित्र कतरनी शस्त्र धारण कर रखा है। तुम भक्तों के ऊपर सदा दया करती हो। हे महामाये! तुमको मैं बारम्बार नमस्कार करता हूॅ।
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