पंचक्लेश – योगमार्ग के पांच महाशत्रु

संसारिक विषयों के निरंतर संसर्ग में रहने से चित्त में परिणामस्वरूप् प्रत्येक क्षण आविर्भूत होने वाली चित्तवृत्तियॉ अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष तथा अभिनिवेशादि ये पांच महाशत्रु साधक को योगमार्ग से विचलित करते हैं तथा साधक के हृदय की पवित्रता को नष्ट करते हैं।

आध्यात्म के क्षेत्र में इन पांचों महाशत्रुओं को पंचक्लेश की संज्ञा दी गई है। ये पंचक्लेश स्वयं तो साधक का अहित करते ही हैं अपितु साथ में अनेक अन्य अधिभौतिक, अधिदैविक तथा आधिज्योतिष क्लोशों की उत्पत्ति का भी कारण हैं। यदि इन पंच क्लेशों से साधक को बचना है तो उसे अपने चित्तवृत्तियों को निरुद्ध करके स्वयं के नियंत्रण में लेना पड़ेगा।

बिना चित्तवृत्तियों के अवरोध एवं नियंत्रण के, एक साधक कभी भी योगसाधना में सफलता नहीं प्राप्त कर सकता है। यहॉ इन पंचक्लेश रूपी महाशत्रुओं पर सविस्तार प्रकाश डालना अति आवश्यक है ताकि सुधि साधकगण योगमार्ग के पथ पर अडिग होकर चल सकें तथा अपने आध्यात्मिक उन्नति को चरम तक पहुॅचा सकें।

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Panch Klesha

पंचक्लेश

अविद्या – यह क्लेश अन्य सभी क्लेशों की जननी है। इसलिए इसकी स्थिति अन्य सभी क्लेशों में भी होती है। बुद्धि की निम्नलिखित सभी गतियॉ अविद्या नामक क्लेश की ही जन्मदात्री है-
  • समस्त संसार को, जो अनित्य है, उसे नित्य समझना।
  • कफ, पित्त, रक्त, मल तथा मूत्र से युक्त अपवित्र शरीर को परम पवित्र समझना।
  • हिंसा, अपराध तथा पापादि अशुद्धिओं से परिपूर्ण अन्तःकरण को शुद्ध समझना।
  • अत्यन्त दुखद विषय भोगों को सुखद समझना।
अस्मिता – इसका अर्थ है ‘मैं’ हॅू का अहंकारपूर्ण भाव। मैं सुखी हॅू, मैं दुखी हूॅ आदि अहंकार को कहते हैं। बुद्धि दर्शन शक्ति है। यह समस्त प्रपंच दिखलाने का साधन है, अतएव वह भोग्य है तथा चेतन पुरुष भोक्ता है। दोनों एक दूसरे से नितान्त भिन्न हैं। दोनों को अभिन्न समझना ही अस्मिता नामक क्लेश है। इसी प्रकार दुख-सुख भी भोग्य और इनका भोक्ता भी चेतन पुरुष है। इन्द्रियादि को भोक्ता मानने से उनमें ममत्व तथा अहमत्व उत्पन्न होते हैं।

राग – एक बार सुख भोग लेने के पश्चात उसे पुनः भोगने की अभिलाषा राग कहलाती है। प्रथम बार के भोग से जो सुख प्राप्त होता है, उसकी बार-बार स्मृति होती है तथा उसे पुनः-पुनः भोगने की इच्छा होती है। फलतः स्त्री, पुत्र, ऐश्वर्य, भोग आदि को प्राप्त करने हेतु मन में जो लोभ, तृष्णा आदि उत्पन्न होते है, उसे ही राग क्लेश कहा जाता है।

द्वेष – राग के संस्कार दृढ़ हो जाने पर जिस किसी के भी द्वारा उस राग से सम्बन्धित सुख-साधन प्राप्ति में बाधा पहुचती है, उसके प्रति द्वेष की भावना उत्पन्न होती है। इस क्लेश की उत्पत्ति भी राग से ही होती है। दुख के अनुभव के बाद दुख की स्मृति में उसके साधनभूत शत्रु आदि में जो प्रतिशोध लेने की इच्छा या क्रोध उत्पन्न होता है, उसे द्वेष कहते है।

अभिनिवेश – प्राणिमात्र में जीवन के प्रति मोह होता है। वह हमेशा जीवित रहना चाहता है। मनुष्य जन्म लेने के बाद, जब तक मृत्यु नहीं हो जाती, जीवित अवस्था में रहता है।

इस अवस्था में बिना मृत्यु को प्राप्त हुए अर्थात मृत्यु के अनुभव के बिना भी वह इससे भयभीत होता है। क्यों? मृत्यु के पूर्व अनुभव के बिना उसकी स्मृति और स्मृतिजन्य भय या त्रास कैसे हो सकता है? अतएव यह मान्य है कि यह भय पूर्वजन्मों की वासना से जन्य है।

यदि यह माना जाय कि भविष्य में घटने वाली मृत्यु की घटना के अनुमान से इसका भय होता है तो छोट-छोटे शिशुओं में यह नहीं होना चाहिए, जबकि होता है। यही नहीं, मानव प्राणी के अतिरिक्त कीट-पतंगों में भी मृत्युत्रास होता है।

वस्तुतः यह सिद्धान्त के रूप् में स्वीकार्य है कि विद्वानों तथा अविद्वज्जनों के चित्त में भी स्वाभाविक रूप से सिद्ध मृत्युभय रूपी क्लेश अभिनिवेश है, जो यदि स्वाभाविक न भी माना जाय तो नैमित्तिक अवश्य होगा।

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