तांत्रिक साधना (TANTRIK SADHANA) : तंत्र बड़ी ऊँची विद्या है। इसकी साधना भी बड़ी ही कठिन और गम्भीर है, और सबके बस की बात भी नहीं है। सभी को इसमें सफलता भी नहीं मिलती।
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TANTRIK SADHANA |
तांत्रिक साधना (TANTRIK SADHANA) एक शक्ति साधना है। यह बात कहना गलत नहीं होगा कि सभी शक्तियाँ विनाश का कारण होती हैं।
आध्यात्मिक और भौतिक दोनों दृष्टियों से शक्ति को अपने हित में कल्याणकारी बनाना ही तांत्रिक साधना (TANTRIK SADHANA) का एकमात्र लक्ष्य है। इस दिशा में जरा सी भी भूल, जरा सी त्रुटि अथवा लापरवाही प्राणघातक सिद्ध हो सकती है।
कभी भी, किसी भी समय प्राण संकट में पड़ सकता है। सच तो यह है कि तंत्र की साधना तलवार की तीखी धार पर रखी शहद की बूंद के समान है।
चाहो तो उस बूंद को चाटो, मगर जीभ भी चिर जाएगी। शहद का स्वाद भी ले लिया जाय और जीभ भी न चिरे, यह कौशल होना चाहिए और वह कौशल केवल सद्गुरु ही बतला सकता है।
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तांत्रिक साधना (TANTRIK SADHANA) का मूल रहस्य
तांत्रिक साधना (TANTRIK SADHANA) और सिद्धि का सम्बन्ध वैश्वानर-जगत से है जो कि वास्तव में सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड में क्रियाशील दैवी शक्तियों का मूल केंन्द्र है। तांत्रिक दृष्टि से उन शक्तियों को चौसठ भागों में विभक्त किया गया है।
प्रत्येक भाग की अपनी स्वतंत्र शक्ति है, जिसे साधना भूमि में योगिनी की संज्ञा दी गयी है। साधक समाज जिन चौंसठ योगिनियों से परिचित है, वे चौंसठ योगिनी यही हैं।
तंत्र में इन्ही चौंसठ योगिनियों को चौंसठ विद्या के नाम से भी जाना जाता है। प्रत्येक योगिनी अथवा विद्या का अपना एक तंत्र है। इस प्रकार तंत्रों की भी कुल संख्या चौंसठ है।
तंत्र का मतलब है, वह साधन जिसके द्वारा शक्ति, साधक के अधिकार में आती है। यदि यह कहा जाय कि साधक और शक्ति के बीच में जो सूत्र है, वही तंत्र है, तो ज्यादा उचित होगा।
तंत्र साध्य नहीं, साधन है। साध्य मात्र शक्ति है, जिसकी साधना करके मनुष्य विशिष्टता को प्राप्त करता है। तंत्र ही वह साधन है, जिसके द्वारा शक्ति साधक के अधिकार में आती है।
तांत्रिक साधना (TANTRIK SADHANA) की मुख्य विद्याएँ
शक्ति त्रिगुणात्मिका है और उसी त्रिगुण के आधार पर योगिनियों अथवा विद्याओं को भी विभाजित किया गया है। कुछ विद्यायें सात्विक हैं और कुछ रजोगुणी। शेष तमोगुणी हैं।
जो तमोगुणी विद्यायें हैं, उनमें डाकिनी विद्या, शाकिनी विद्या, धुमावती विद्या, नाग विद्या, नागमोहिनी विद्या, अघोर विद्या, कपाल संकलिनी विद्या, प्रेत विद्या, पिशाच विद्या और बेताल विद्या आदि मुख्य हैं।
मारण, मोहन, वशीकरण, उच्चाटन आदि षट्कर्म तथा विभिन्न प्रकार के तमोगुणी तांत्रिक साधना (TANTRIK SADHANA) प्रयोग व अनुष्ठान भी इसी के अन्तर्गत है।
तांत्रिक साधना (TANTRIK SADHANA) के अंतर्गत आने वाली इन तमोगुणी विद्याओं में डाकिनी विद्या और धूमावती विद्या ऐसी विद्याएं हैं जो अत्यन्त भयानक और दुर्धर्ष समझी जाती हैं।
डाकिनी विद्या की सिद्धि की सहायता से किसी की आंखों में झांक कर उसके भूत, भविष्य और वर्तमान का हाल बताया जा सकता है।
मगर इससे भी बढकर है धूमावती विद्या, जिसकी सहायता से कोई भी अपना रूप-रंग, शक्ल-सूरत, यहाँ तक कि अपनी वाणी भी बदल सकता है।
तांत्रिक साधना (TANTRIK SADHANA) केवल सिद्धियाँ प्राप्त करने का साधन ही नहीं अपितु यह मोक्ष प्राप्ति का साधन भी है। कलयुग में तांत्रिक साधना ही शिघ्र फलदाई है।
तांत्रिक गुरु के देख-रेख में ही तंत्र मार्ग में आगे बढा जा सकता है और भौतिक जीवन में भोग के साथ-साथ मानव जीवन का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त हुआ जा सकता है।
तांत्रिक साधना (TANTRIK SADHANA) में पंचमकार का प्रयोग
तांत्रिक साधना (TANTRIK SADHANA) का सबसे बड़ा रहस्य है- तंत्र सिद्धि के लिए पंचमकार का प्रयोग। पंचमकार का मतलब है- उन विशिष्ट पांच वस्तुओं का तंत्र में प्रयोग जो ”म” से शुरु होती है। जैसे- मदिरा, मांस, मछली, मुद्रा तथा मैथुन।
तंत्र साधना में सिद्धि के लिए तांत्रिक इन पंचमकारों का प्रयोग करते हैं जिसे आज भी समाज घृणित एवं त्याज्य मानता है।
परन्तु तंत्र ग्रंथों के अनुसार पंचमकार के प्रयोग से ही शक्ति साधना सम्भव है। बिना पंचमकार के तंत्र के दुनियां में सिद्धि असम्भव है। तंत्र ग्रंथों के अनुसार-
मकारपंचकं प्राहुर्योगिनः मुक्तिः दायिकम्।।
अर्थात- मदिरा, मांस, मछली, मुद्रा और मैथुन, ये पंचमकार योगी को मुक्ति देने वाले हैं।
अब सोचने वाली बात यह है कि क्या इन पांचों वस्तुओं के प्रयोग से मुक्ति सम्भव है या मनुष्य मुक्ति के बजाय पतन की ओर अग्रसर होगा।
पंचमकार का प्रयोग बड़ा रहस्यमय है। पंचमकार में वर्णित भौतिक वस्तुएं- मदिरा, मांस, मछली, मुद्रा और मैथुन का अर्थ संकेतात्मक हैं।
ये वस्तुएं किसी और गुप्त क्रिया की ओर संकेत करती हैं। इनका प्रयोग भौतिक नहीं है। इनका प्रयोग यौगिक है। तंत्र को हमेशा से गुप्त रखा गया है और इसकी गोपनीयता को बनाए रखने के लिए इन शब्दों का प्रयोग किया है।
कुलार्णव तंत्र में कहा गया है-
सर्वेऽपि जंतवो लोकेक मुक्ताः स्युः स्त्रीनिषेवनात्।।
अर्थात् यदि मदिरा पीने से मानव सभी सिद्धिओं का स्वामी बन जाता तो आज हर जगह मदिरा पीने वाले गंवार सिद्धिओं के स्वामी बन जाते।
यदि मांस भक्षण करने से ही मनुष्य को पुण्य की प्राप्ति होती तो इस संसार के जितने मांसाहारी लोग हैं, सब पुण्य के भागी हो जाते।
इसी प्रकार यदि स्त्री के साथ संभोग करने से मोक्ष की प्राप्ति होती तो संसार के सभी प्राणी मोक्ष प्राप्त कर लेते। क्योंकि इस संसार में कोई भी प्राणी ऐसा नही है जो काम के वश में न हो।
इस प्रकार देखा जाए तो एक ओर तंत्र ग्रंथ जहाँ तांत्रिक साधना (TANTRIK SADHANA) में मदिरा, मांस, मछली, मुद्रा और मैथुन को आवश्यक बताते हैं, तो वहीं इसका खण्डन भी करते हैं कि अगर प्रत्यक्ष मदिरा, मांस, मछली, मुद्रा और मैथुन के प्रयोग से मुक्ति संभव होती तो इस संसार का हर प्राणी योगी बन जाता।
इससे यह स्पष्ट है कि पंचमकार कोई भौतिक तत्व न होकर यह किसी अन्य रहस्यमयी यौगिक क्रियाओं की ओर संकेत करते हैं।
तांत्रिक साधना (TANTRIK SADHANA) में पंचमकार का वास्तविक अर्थ
मद्य (मदिरा) – मद्य अर्थात् मदिरा का तात्पर्य ब्रह्मरंध्र में स्थित सहस्रदल कमल से अनवरत स्रावित होने वाले अमृत से है। इस अमृत रुपी मद्य का ही सेवन करके योगी दिव्य आनन्द को प्राप्त करता है जो कि देवताओं के लिए भी दुर्लभ है।
मांस – हमारे हृदय में जो भी भाव होते हैं, तंत्र उन्हें पशुभाव मानता है। जब तक एक साधक के मन में पाप-पुण्य, सत्य-असत्य जैसे भाव का अस्तित्व है, तब तक वह पशु की श्रेणी में है।
इसी अज्ञान रूपी पशु को ज्ञान रूपी तलवार से मारकर उसके मांस के भक्षण को तंत्र में मांसाहार कहा गया है।
मीन – मीन का अर्थ है- मछली। यह तंत्र में वर्णित मकारों में तीसरे स्थान पर आता है। हमारे शरीर में मुख्य दो नाड़ियाँ हैं- इड़ा (इंगला), पिंगला। इन नाड़ियों को मत्स्य या मछली की संज्ञा दी गयी है।
प्राणायम के द्वारा इंगला एवं पिंगला नाड़ियों को सुषुम्ना में समाहित कर लेने वाला साधक ही वास्तविक मत्स्य (मछली) सेवी है।
मुद्रा – विजय तंत्र के अनुसार-
असंत्संगमुद्रणम् यत्त तन्मुद्रा परिकीर्तिता।।
अर्थात- मुद्रा से तात्पर्य, कुसंगति का त्याग करना है। क्यांकि कुसंगति के त्याग एवं सत्संगति के प्रभाव से ही मनुष्य मुक्ति को प्राप्त करता है। कुसंगति से मनुष्य मोह-माया एवं बंधनों में फस जाता है। इसी कुसंगति के त्याग का नाम मुद्रा है।
मैथुन – तंत्र का पांचवा एवं अंतिम मकार है- मैथुन। सहस्रार में स्थित शिव और कुंडलिनी अथवा प्राण और सुषुम्ना का मिलन ही योग की दृष्टि में मैथुन है।
तंत्र के अनुसार आत्मा और पराशक्ति के संयोग से उत्पन्न आनन्द के आस्वादन का नाम मैथुन है। इसके अलावा जो स्त्री के साथ संभोग को तंत्र का मैथुन समझता है, वह तंत्र साधक हो ही नहीं सकता।
तांत्रिक साधना (TANTRIK SADHANA) में यही पंचमकार का वास्तविक रहस्य है। परन्तु कुछ ढोंगी और स्वार्थी लोगों ने तंत्र का नाम बदनाम कर रखा है।
तंत्र कोई भोग का विषय नहीं है जो मांस, मछली और मदिरा पीकर मुक्ति प्राप्त कर लिया जाए। तंत्र, गहन योग एवं रहस्य का विषय है, जिसे गुरु कृपा से ही समझा जा सकता है।
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