त्रिपुर भैरवी – TRIPUR BHAIRAVI :- भैरवी योगेश्वरी रूप उमा हैं तथा जगत का मूल कारण हैं। एक कथानुसार जब शिव का मन उच्चटित होता है, तो वह पार्वती से कहीं दूर जाना चाहते हैं।
परन्तु ज्योंहि वह आगे निकलते हैं, तो उनका मार्ग अवरुद्ध करके दशों दिशाओं से दस महादेवियॉ प्रकट होती हैं। जब शिव जी उनका परिचय पूछते हैं तब पार्वती कहती हैं-
अहं तु भैरवी भीमां शम्भो मा त्वऽभयं कुरु।।
अर्थात् हे शिव! मैं स्वयं ही भैरवी रूप् से आपको अभय दान देने के लिए प्रस्तुत हुई हूॅ।
अतः कहा जा सकता है कि पार्वती हीं भैरवी रूपा हैं। श्री त्रिपुर भैरवी का स्थान दस महाविद्याओं में छठवें नम्बर पर है। इनकी साधना-उपासना का मुख्य उपयोग घोर कर्म में होता है। इनके ध्यान का उल्लेख सप्तशती के तीसरे अध्याय में महिषासुर वध के प्रसंग में हुआ है।
इनका रंग लाल है, लाल वस्त्र पहनतीं हैं, गले में मुण्डमाला धारण करती हैं, स्तनों पर रक्त चन्दन का लेप करती हैं, जयमाला, पुस्तक, अभय एवं वर नामक मुद्रा धारण की हुईं हैं। यह देवी कमलासन पर विराजमान हैं।
मधुपान कर महिष का हृदय विदीर्ण करने के लिए इनके घोर रूप् का अवतरण हुआ है। इनका यंत्र सुवर्ण में धारण करना चाहिए। संकटों के मुक्ति के लिए इनकी उपासना फलप्रदा है। जबलपुर के पास स्थित प्राचीन स्थान त्रिपुरी इस शक्ति का आराधना पीठ है।
Table of Contents
त्रिपुर भैरवी मंत्र – TRIPUR BHAIRAVI MANTRA
TRIPUR BHAIRAVI MANTRA STOTRA |
त्रिपुर भैरवी ध्यान – TRIPUR BHAIRAVI DHYAN
देवीं बद्धहिमांशुरक्तमुकुटां वन्दे समन्दस्मिताम्।।
देवी के देह की कान्ति उदय होते हुए सूर्य के समान है। रक्त वर्ण वस्त्र पहिने, गले में मुण्डमाला और दोनों स्तन रक्त से भीगे हुए हैं। इनके चारों हाथों में जपमाला, पुस्तक, अभय मुद्रा तथा वर मुद्रा और ललाट में चन्द्र विद्यमान है। इनके तीनों नेत्र लाल कमल के समान है।
मस्तक में रत्न जड़ित मुकुट और मुख पर मृदु हास्य विराजित है। (त्रिपुर भैरवी – TRIPUR BHAIRAVI)
भैरवी स्तोत्र – BHAIRAVI STOTRA
यया व्रजन्ति तां लक्षमीं मनुजाः सुरपूजिताम्।।
हे त्रिपुरे! मैं वांछित फल प्राप्त होने की आशा से तुम्हारी स्तुति करता हॅू। इस स्तुति के द्वारा मनुष्यगण देवताओं से पूजित धन देवी को प्राप्त करते हैं।
स्थूलां स्तुमः सकलवांगमयमातृभूताम्।।
हे जननी! तुम जगत की आद्या हो। तुम्हारा आदि नहीं है। इसी कारण ब्रह्मादि देवतागण भी सैकड़ों स्तुति करके सूक्ष्मरूपिणी तुमको समझ पाने में समर्थ नहीं हैं। उनकी ऐसी वाक सम्पत्ति ही नहीं हो पाती है, कि जो तुम्हारी स्तुति करने में समर्थ हों।
इस कारण हम कुंकुम के समान कांति वाली वाक्य रचना की जननी उन्नत पुष्ट स्तन वाली तुम्हारा स्तुतिगान करते हैं।
त्वां हारभाररुचिरां त्रिपुरे भजामः।।
हे त्रिपुरे! तुम्हारे देह की कांति नये उदित होते हजारों सूर्यों के समान उज्ज्वल है। तुम चारों हाथों में विद्या, अक्षयसूत्र और अभय धारण करती हो। तुम्हारे तीनों नेत्रकमलों से मुखकमल अलंकृत हुआ है। तुम्हारा गला, हार से विराजमान है। ऐसी मैं तुम्हारी आराधना करता हूॅ।
जानन्तिं किं जडधियस्तव रूप् मम्ब।।
हे जननी! तुम्हारा रूप् सिन्दूर के समान लालवर्णा है। तुम्हारा देहांश भारी एवं उन्नत स्तनों के भार से झुक रहा है। जिन्होंने जन्म जन्मान्तर से बहुत पुण्य संचय किया है। वही उस पुण्य के प्रभाव से तुम्हारा ऐसा रूप् देखने में समर्थ होगा। जो पुरुष निरंतर परस्पर कलह से कुंठित है, वह जड़मती पुरुष तुम्हारा ऐसा रूप किस प्रकार जान सकते हैं?
मन्यामहे वयमपारकृपाम्बुराशिम्।।
हे भवानी! मुनिगण तुमको स्थूल कहकर वर्णन करते हैं। श्रुतियां तुमको स्थूल कहकर स्तुति करती हैं। कोई जन तुमको वाक्य की अधिष्ठात्री देवी कहते हैं। अपरापर अनेक विद्वान, पुरुष जगत् का मूल कारण कहते हैं। किन्तु मैं तुम्हें केवल मात्र दया की देवी करुणेश्वरी जानता हूॅ।
व्याख्यांच हस्तकमलैर्द्दधतीं त्रिनेत्राम्।।
हे जननी! तुम चंद्र से अलंकृत हो। तुम्हारे देह की कांति शरद के चंद्रमा के समान है। तुम्हीं पचास वर्णों वाली वर्णमाला हो। तुम्हारे चार हाथों में पुस्तक, जपमाला, सुधावर्ण कलश और व्याख्यान मुद्रा विद्यमान है। तुम्हीं त्रिनेत्र धारिणी हो। साधक इस प्रकार से तुम्हारा अपने हृदयकमल में ध्यान करते हैं।
येषां क्रियाश्च जगति त्रिपुरे त्वमेव।।
हे जननी! तुम्हीं अर्द्धनारीश्वर शंभु रूप् से शोभायमान हो। तुम्हीं कमलाश्लिष्टा विष्णु रूपिणी हो। तुम्हीं कमलयोनि ब्रह्मस्वरूपिणी हो। तुम्हीं वागाधिष्ठात्री देवी हो। ब्रह्मादिक की सृष्टिक्रिया शक्ति भी केवल तुम्हीं हो। त्रिपुर भैरवी – TRIPUR BHAIRAVI
आकुंच्य वायुमवजित्य च वैरिषट्क।
तद्रुपमम्ब कृति तस्तरुणार्कमित्रम्।।
हे अम्बे! विद्वान पुरुष वायु का निरोध करके काम क्रोधादि छः शत्रुओं को जीतकर अपनी नासिका का अग्र भाग देखते हुए चन्द्रस्वरूपी नये उदय हुए सूर्य समान तुम्हारे रूप् का सहस्र कमल में ध्यान करते हैं।
र्नोचेदशेषजगतः स्थितिरेव न स्यात्।।
हे पर्वतराजपुत्री! तुमने काम का दमन करने वाले महादेव के शरीर का अर्द्धांश अवलम्बन करके जगत् को उत्पन्न किया है। वेद में जो इस प्रकार वर्णन है, वह सत्य ही जान पड़ता है। हे विश्वजननी! यदि ऐसा न होता तो कभी जगत् की स्थिति संभव नहीं होती।
रास्वादितामृतरसारुणपद्मनेत्रा।।
हे जननी! सिद्धों की स्त्रियों ने किन्नरीगणों के साथ मिलकर आसव रस पान किया है, इस कारण उनके नेत्रकमलों ने लोहित कांति धारण की है। वह पारिजातादि सुरतरु के फूलों से तुम्हारी पूजा करती हुई कैलाश पर्वत की कन्दराओं में तुम्हारे नाम का गायन करती हैं।
देवीं भजे हृदि परामृतसिक्तगात्राम्।।
हे देवी! जिन्हांने बिजली की रेखा के समान दीप्तमान् देह धारण किया है। जो अतिशय शोभा से युक्त हैं। जो अपने वासस्थान मूलाधार पद्म से सहस्त्र कमल में जाने के समय सुषुम्ना में स्थित पद्म समूह को विकसित करती हैं। जिनका शरीर परम अमृत से अभिषिक्त है। वह देवी तुम्हीं हो। मैं तुम्हारी आराधना करता हूॅ।
सौभाग्यजन्मवसतीं त्रिपुरे यथावत्।।
हे त्रिपुरे! तुम्हारा देह आनन्द भवन है। तुम्हारे शरीर से ही श्रुतियॉ उत्पन्न हुई हैं। यह देह चैतन्यमय है। ब्रह्मा, विष्णु और महादेव तुम्हारे चरणकमलों की आराधना करते हैं। सौभाग्य, तुम्हारे शरीर का आश्रय करके शोभा पाता है। मैं तुम्हारे ऐसे शरीर का आश्रय ग्रहण करता हूॅ।
त्रिपुर भैरवी – TRIPUR BHAIRAVI
सर्व्वार्थभावि भुवनं सृजतीन्दुरूपा।
या तद्बिर्भितत्त पुरनर्कतनुः स्वशक्त्त्या।
ब्रह्मात्मिका हरति तत् सकलं युगान्ते।
तां शारदां मनसि जातु न विस्मरामि।।
हे जननी! जो चन्द्र रूप् से भवनों की सृष्टि, सूर्य रूप् से पालन और प्रलय काल में अग्नि रूप् से उस सबको ध्वंस करती हैं, उस शारदा देवी को मैं कभी न भूल सकूॅ।
नारायणीति नरकार्णवतारिणीति।
गौरीति खेदशमनीति सरस्वतीति।
ज्ञानप्रदेति नयनत्रयभूषितेति।
त्वामद्रिराजतनये विबुधा वदन्ति।।
हे पर्वतराजकन्ये! साधकगण तुम्हारी नारायणी, नरक-रूप् सागर से तारने वाली देवी, गौरी, दुखनाशिनी, सरस्वती, ज्ञानदात्री और तीन नेत्रों से भूषिता इत्यादि रूप् से आराधना करते हैं।
ये स्तुवन्ति जगन्माता श्लोकैर्द्वादशभिः क्रमात्।
त्वामनुप्राप्य वाक्सिद्धिं प्राप्नुयुस्ते परां गतिम्।।
हे जगन्मातः! जो पुरुष इन बारह श्लोकों से तुम्हारी स्तुति करते हैं, वह तुमको प्राप्त करके वाक्सिद्धि को प्राप्त कर लेते हैं, और देह के अंत में परमगति को प्राप्त होते हैं। त्रिपुर भैरवी – TRIPUR BHAIRAVI
Pingback: मातंगी (MATANGI) : वाणी की देवी » तांत्रिक रहस्य
Pingback: धूमावती | DHUMAVATI » तांत्रिक रहस्य