KLESHA NIVARANA : मानव प्राणी अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश, इन पांचों क्लेशों के कारण अपनी उत्कृष्टता को खो देता है, या यह कहा जा सकता है कि संसार की सर्वोत्कृष्ट रचना होते हुए भी इन्हीं क्लेशों के कारण उसे पशुवत जीवन जीने के लिए बाध्य होना पड़ता है।
अतएव अपनी पहचान को उत्कृष्ट, जीवंत तथा अक्षुण्य बनाये रखने के लिए मानव प्राणी को इन क्लेशों को निष्प्रभावी बनाने की समुचित युक्ति करनी होगी।
क्लेश निवारण के उपाय – KLESHA NIVARANA
KLESHA NIVARANA :- विषय भोगों में अनवरत प्रवृत्त रहना व्यसन कहलाता है। इसमें लिप्त मानव प्राणी पूर्णतया इन्द्रियों के ही वशीभूत होता है।
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Panch Klesha Nivaran |
इन्द्रियों को अपने वश में करने के उपाय – INDRIYON KO VASH ME KAREN
इन्द्रिय-निग्रह अर्थात् अपने इन्द्रियों को अपने वश में करने के कई उपाय हैं। नीचे दिये गये बिन्दुओं को अपने जीवन में उतारकर एक साधक या सामान्य मनुष्य भी अपने इन्द्रियों को अपने वश में कर सकता है।
प्रथम– विषयों में इतनी अधिक आसक्ति न हो कि मानव प्राणी कल्याण मार्ग से पूर्णतः वंचित रहकर विषय भोगों में ही लिप्त रहे। (KLESHA NIVARANA)
द्वितीय– वास्तव में इन्द्रिय चांचल्य भोग्याधीन होता है। भोग्य विषय समक्ष आते ही इन्द्रिय उसे भोगने हेतु आतुर हो उठती है। ऐसे समय तत्काल विषय भोग प्रारंभ न करके, उस वेग को रोककर जब अपनी इच्छा हो तब विषय भोग में संलग्न होना चाहिए।
तृतीय– राग-द्वेष से निवृत्त होने पर विषयों की सुख-दुखों से शून्य प्रतीत भी इन्द्रिय-निग्रह है, अर्थात् विषयों और सुख-दुख आदि में किसी सम्बन्ध की प्रतीति नहीं होती, जिसके कारण प्राणी विषय भोग में तत्काल प्रवृत्त हो सके। राग-द्वेष समाप्त हो जाने पर विषयों के प्रति सुखप्रद तथा दुखप्रद अनुभूतियॉ भी नहीं होती। यह इन्द्रिय जय की ही अवस्था है।
चतुर्थ– उपर्युक्त तीनों मतों के अनुसार वास्तविक इन्द्रिय-निरोध नहीं हो सकता क्योंकि इनमें किसी न किसी प्रकार से इन्द्रियॉ विषयों से आबद्ध बनी रहती हैं जिससे उनके पथभ्रष्ट होने की संभावनाए भी बनी रहती हैं, अतएव चतुर्थ मत के अनुसार चित्त के निरोध से ही वास्तविक इन्द्रिय जय हो सकता है।
यही उपर्युक्त तीनों मतों से श्रेष्ठ भी है क्योंकि इसमें चित्त के ही निरूद्ध हो जाने पर उसकी अधीनस्थ इन्द्रियॉ भी निरुद्ध हो जाती हैं।
इन्द्रियों पर यह विजय प्राप्त कर लेने पर शरीर के समस्त स्नायुमण्डलों तथा मांसपेशियों पर मनुष्य का पूर्ण नियंत्रण हो जाता है, अर्थात् वह उनका संचालनकर्ता बन जाता है। ऐसी स्थिति में विजेता व्यक्ति स्वयं अपनी इन्द्रियों से मनचाहे कार्य करवा सकता है। यही नहीं वह अपने परम लक्ष्य को भी प्राप्त कर सकता है।
अतएव इन्द्रियों पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त करने के लिए चित्तवृत्तियों को ही निरुद्ध करना सबसे उत्तम मार्ग है। इसके अन्तर्गत कुछ यौगिक क्रियाओं का अभ्यास करना नितान्त आवश्यक है।
चुंकि क्रिया-योग या कर्म-योग एक शारीरिक तपस्या है इसलिए साधना स्वरुप शरीर-इन्द्रियादि में कोई विघ्न-बाधा नहीं आनी चाहिए, जिससे यह तपश्चर्या प्रभावित हो, क्योंकि शारीरिक पीड़ा, व्याधि, इन्द्रिय-विकार तथा चित्त मालिन्य आदि योग मार्ग के विघ्न हैं। अतः युक्त आहार, विहार आदि से ही सात्विक तपस्या हो सकती है। गीता में भी भगवान कृष्ण कहते हैं-
युक्त स्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा।।
युक्ताहार– योगाभ्यास करने वाले व्यक्ति को अपने आहार के विषय में पूर्ण सचेत रहना चाहिए, क्योंकि अन्न का शरीर तथा मन पर प्रकृष्ट प्रभाव पड़ता है। अन्न सात्विक तथा पवित्र साधनों से अर्जित किया हुआ तथा परिमित मात्र में होना चाहिए।
केवल स्वाद के वशीभूत होकर भोजन नहीं ग्रहण करना चाहिए। खाद्य सामग्री मधुर, स्निग्ध, रुचिकर तथा क्षुधा के अनुसार किंचित कम मात्रा में ही ग्रहण करना चाहिए। इससे स्वास्थ्य भी अच्छा रहता है।
युक्त विहार– अत्यधिक थकान से मन उच्चटित हो उठता है तथा योग-क्रिया में बाधा पहुंचती है। अतः लम्बी तथा कठिन यात्रा नहीं करनी चाहिए। घूमना-फिरना उतना ही मात्रा में होना चाहिए कि शरीर में थकान एवं मन में खिन्नता का अनुभव न हो।
युक्त चेष्टा– न तो अधिक शारीरिक श्रम करना चाहिए, न ही अपने कर्तव्यों के प्रति विमुख होना चाहिए। नित्य प्रति नियत सत्कर्मों को करते हुए अपने कर्तव्य पालन में दत्तचित्त रहता चाहिए। (KLESHA NIVARANA)
युक्त स्वप्नावबोध– उचित परिमाण से अधिक या कम सोना ही स्वप्नावबोध है। योग साधना में लगे व्यक्ति को न ही अधिक मात्रा में सोना चाहिए और न ही उचित मात्रा से कम सोना चाहिए। क्योंकि दोनों स्थितियॉ योग साधना के अनुकूल नहीं होती। सोने के समय को क्रमशः घटाना ही उचित होता है। KLESHA NIVARANA
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